मुस्लिम महिलाओं के अधिकार (rights of muslim women) की बात हो और तीन तलाक़ का ज़िक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता. दशकों से, मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों ने इस कुप्रथा (triple talaq case) की वजह से महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव और परेशानियों को दूर करने के लिए कानूनी सुधारों की वकालत की। देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट (supreme court on triple talaq) ने 2017 में ऐतिहासिक फैसला सुनाया और तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया.
तीन तलाक़ का ज़िक्र न तो क़ुरआन में और न ही हदीस में
ट्रिपल तलाक़ न सिर्फ गैर संवैधानिक है, बल्कि गैर इस्लामिक (triple talaq against islam) भी है. एक बार में तीनों तलाक़ देने का ज़िक्र न तो क़ुरआन में है और न ही हदीस में. इस्लाम की रोशनी में देखा जाये तो तीन तलाक़ को तलाक़-ऐ-बिदअत का नाम दिया गया है, यानी वह काम जो इस्लाम का हिस्सा नहीं पर सदियों से उसे अपनाया जा रहा है. इसे तलाक़-ऐ- बिदअत (talaq e biddat) कहा गया क्योंकि इस्लाम के मुताबिक़ तलाक़ लेने की प्रक्रिया में महिलाओं के अधिकार (muslim womens' rights in seeking divorce) का ख़ास ध्यान रखा गया है.
इस्लाम में तलाक़-ए-अहसन (right way of talaq in Islam) तलाक़ का सही तरीका माना गया है. इस तरीके से तलाक़ तीन महीने के अंदर दी जाती है, जिसमें तीन बार तलाक़ शब्द बोला जाना जरूरी नहीं. पहली बार तलाक़ कह कर तीन महीने इंतज़ार किया जाता है. इन तीन महीनों में, पति पत्नी चाहे तो साथ आ सकते हैं. तीन महीनों में भी अगर वह अलग होने का फैसला करते हैं तो तलाक़ हो जाता है.
महिलाओं पर इस फैसले का क्या हुआ असर ?
मुस्लिम महिलाओं की इस क़ानूनी जंग को सही अंजाम तक पहुंचाने में कई महिलाओं ने संघर्ष किया है. इस लड़ाई की शुरुआत उत्तराखंड की सायरा बानो (Saira Bano) ने की जो इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक लेकर गई. उनका साथ देने वाली महिलाएं थी गुलशन परवीन, आफरीन रहमान, इशरत जहां और अतिया साबरी. इन सभी महिलाओं को तीन तलाक़ दिया गया था जिसके बाद उन्हें काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा. कई महिलाओं को तीन तलाक़ फोन पर, चिट्ठी लिखकर, तो कभी स्पीड पोस्ट के ज़रिये दी गई, जो शरीअत और संविधान दोनों ही तरह से गलत है.
इस फैसले (impact of Tripple Talaq ban for empowering Muslim women) से मुस्लिम महिलाओं को मनमाने और पितृसत्तात्मक भेदभाव के खिलाफ कानूनी सुरक्षा मिली. नए कानूनी प्रावधानों में तलाकशुदा महिलाओं को एलिमनी (alimony) देना और भरण-पोषण का भुगतान करना अनिवार्य किया गया, जिससे तलाक के बाद उनकी वित्तीय स्थिरता बनी रहे. इस कानूनी बदलाव ने divorcee महिलाओं को मान्यता दी जिससे उन्हें सामाजिक भेदभावों (social stigmas) से निपटने की हिम्मत मिली. कानूनी सुधारों ने बदलाव लाने के लिए प्रेरित किया.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से इस्लाम द्वारा दिए गए महिलाओं के अधिकारों को लेकर जो भ्रांतियां थी वह दूर हुई. मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की जो चर्चा तीन तलाक़ से शुरू हुई है, उम्मीद है उनसे जुड़े दूसरो मुद्दों को भी कवर करेगी.