इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल (Nobel of Economics) पुरस्कार हार्वर्ड विश्वविद्यालय की प्रोफेसर क्लाउडिया गोल्डिन (Professor Claudia Goldin) को दिया गया. वह इतिहास में यह पुरस्कार जीतने वाली तीसरी महिला हैं और स्वतंत्र रूप से सम्मानित होने वाली पहली महिला बनी.
भारत सहित कई दूसरे देशों पर लागू होती है क्लाउडिया गोल्डिन की रिसर्च
नोबेल साइटेशन में उनके पांच दशकों के काम का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यह पुरस्कार "महिलाओं के श्रम बाजार के परिणामों के बारे में समझ को उन्नत करने के लिए दिया गया". उनके इस गहन अध्ययन ने अमेरिकी इतिहास के 200 वर्षों में महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी और परिणामों के बारे में बताया. अमेरिकी डेटा से निकाले गए उनके कई निष्कर्ष, सांस्कृतिक और भौगोलिक मतभेदों के बावजूद, भारत सहित कई दूसरे देशों पर लागू होते हैं.
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क्लाउडिया गोल्डिन की रिसर्च से पता चला कि कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी (FLFPR) समय के साथ यू-आकार के पैटर्न में बदली. इसका अर्थ यह है कि शुरूआती कृषि अर्थव्यवस्थाओं में महिला भागीदारी ज़्यादा रही, औद्योगिक फेज के दौरान गिरावट आई, और फिर जब अर्थव्यवस्थाएं सर्विस-सेंट्रिक हुईं तो महिलाओं की भागीदारी फिर से बढ़ गई.
पारिवारिक आय, सामाजिक मानदंडों की वजह से भारत में FLFPR सिर्फ 20% से 27.7%
यह भी देखा गया कि बड़े सर्विस सेक्टर वाले समृद्ध देशों में, महिला श्रम शक्ति की भागीदारी ज़्यादा होती है, करीब 85-90%. इसके विपरीत, भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर कम है, जिसका अनुमान 20% से 27.7% तक है (female labor force participation in India). यह अंतर पारिवारिक आय, सामाजिक मानदंडों, और सामाजिक रीति-रिवाजों जैसे कारकों से प्रभावित होता है.
कम आय वाले परिवारों में महिलाओं के लिए बाहर जाकर काम करना ज़रूरी हो जाता है, जिससे FLFPR में बढ़ोतरी होती है. जैसे-जैसे पारिवारिक आय बढ़ती है, महिलाएं घरेलू और बच्चों की देखभाल जैसी ज़िम्मेदारियों पर ध्यान देने के लिए कार्यबल से हट जाती हैं. जबकि, अमीर घरों में महिलाओं की वर्कफोर्स में भागीदारी फिर से बढ़ सकती है. यह पैटर्न सामाजिक रीति-रिवाजों और पारिवारिक आय से प्रभावित होता है.
FLFPR पर दिखता है शिक्षा का प्रभाव
शिक्षा भी अहम भूमिका निभाती है. कम या बिना शिक्षा वाली महिलाएं वर्कफोर्स में ज़्यादा भाग लेती हैं, जबकि कुछ शिक्षा जैसे वाली महिलाएं कम भाग ले सकती हैं. उच्च शिक्षा स्तर वाली महिलाएं कार्यबल में फिर से प्रवेश करती हैं. ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि मध्यम-शिक्षित महिलाएं काम नहीं करना चाहती हैं, बल्कि इसलिए कि उनके हिसाब से नौकरी के अवसर नहीं होते.
कुछ समाजों में यह धारणा है कि एक महिला की नौकरी अस्थायी होती है, इस उम्मीद के साथ कि वह शादी या मां बनने के बाद नौकरी छोड़ देगी. परिवार नियोजन और प्रति परिवार कम बच्चों की वजह से यह मानसिकता बदल रही है. गर्भनिरोधक तक पहुंच का FLFPR पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा है.
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श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी से बढ़ेगी GDP
इसके अलावा क्लाउडिया गोल्डिन की रिसर्च ने यह भी बताया कि कि श्रम बल की भागीदारी और वेतन में अभी भी लैंगिक अंतर है और इन अंतरों को दूर करने से भारत की GDP में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो सकती है.
हाल के वर्षों में, भारत में राजनीति और कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के प्रयास हुए हैं, जैसे सरकार में महिलाओं के लिए कोटा और कंपनियों द्वारा गर्भावस्था के बाद महिलाओं को फिर से काम पर रखने के प्रयास देखे गए, जिससे FLFPR पर सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला.
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स्वयं सहायता समूहों के ज़रिये महिलाएं जुड़ी उद्यमिता से
2023 का आर्थिक सर्वेक्षण (The Economic Survey of 2023) देश भर में 12 मिलियन स्वयं सहायता समूहों (Self Help Group) के नेत्तृत्व में चल रही क्रांति पर ही प्रकाश डालता है, जो लगभग पूरी तरह से महिलाओं द्वारा संचालित हैं. इन समूहों की वजह से महिलाओं की उद्यमिता बढ़ी है, जिससे आर्थिक आज़ादी हासिल करने का रास्ता आसान हुआ है.
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कुल मिलाकर, गोल्डिन का प्राइज भारत की आर्थिक बढ़ोतरी के लिए श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने और समान वेतन की ज़रुरत पर ज़ोर देता है. मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अध्ययन में सुझाव दिया कि FLFPR को 10 प्रतिशत बढ़ाने से 2025 तक भारत की GDP में 700 अरब डॉलर की बढ़ोतरी हो सकती है. देश 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था तक पहुंचने की आकांक्षा रखता है. ऐसे में आधी आबादी को सशक्त बनाना ज़रूरी है ताकि देश का समग्र विकास हो सके.