अगर एक लड़की हाथ में बैट लिए दिख जाए, तो बस उसका मज़ाक उड़ाना, उसे टॉन्ट मारना, हंसी उड़ाना चालू कर देती है हमारी सो कॉल्ड फॉरवर्ड मेंटालिटी वाली सोसाइटी. आज भी भारत में वीमेन क्रिकेट टीम को बहुत कम समझा जाता है, पुरुषों के मुकाबले. लेकिन अगर देखा जाए तो, महिलाओं की क्रिकेट मैंचेज़ जीतने की दर पुरुषों से कई जयादा है. अब यह बात भी सब को समझ आ गयी है कि अगर एक महिला ठान ले तो किसी भी काम को पूरा कर, उसमें जीत कर ही दम लेती है.
ये महिलाएं कर रहीं है इम्पॉसिबल को पॉसिबल
महिलाएं घर संभालने से लेकर देश को संभालने तक सब कुछ कर रहीं है, भले ही उन्हें कितना भी कम समझा जाए, लेकिन वो साबित कर देती है कि वे कुछ भी कर सकती है. क्रिकेट खेलना तो बहुत छोटी बात है, जो आज की महिला कर रहीं है उसके आगे सब कुछ बहुत छोटा सा लगता है. कहते है, किसी गेम को खेलने के लिए पूरी तरह फिट होना ज़रूरी है, लेकिन उन से आप क्या कहेंगे, जो पैराओलंपिक्स जैसे खेलों में हिस्सा भी लेते है और जीतते भी है. इन महिलाओं की ताकत का अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता. एक खेल को इतनी शिद्दत से खेलना और उसमें जीतना, हार मानने की बात इन से ना ही की जाए तो बेहतर है.
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ललिता और तस्नीम, दो महिलाएं, जो पैदा हुई अलग अलग शहरों में, लेकिन उनके सपने और सोच एक जैसी है. बड़ी हुई क्रिकेट देखकर, और आज देश के लिए खेलना चाहती है. सुनने में तो आम सी बात लगेगी, लेकिन ऐसा है नहीं. ये महिलाएं पोलियो पीड़ित है. ये दोनों राज्य स्तरीय क्रिकेटर हैं, जिन्होंने भारत की पहली महिला विकलांग क्रिकेट टीम के लिए खेला है.
सुनकर लगता है कि एक विकलांग महिला क्रिकेट कैसे खेल पाएगी, लेकिन नामुमकिन को मुमकिन करना ही तो इन महिलाओं का काम है. तस्नीम, जो कि, वासेपुर झारखंड कि है, कहती है- “बचपन में मैं इरफ़ान पठान का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं, मैं एक भी मैच देखना नहीं भूलती थी. लेकिन मैं अपनी सीमाएँ जानती थी. मैंने सोचा कि मैं स्टेडियम में एक भी मैच तक नहीं देख पाऊँगी, खेलना तो दूर की बात है. लेकिन आज मैं अपने देश के लिए खेल भी रहीं हूं और खुद पर गर्व महसूस करती हूं." सारी परेशानियां होने के बावजूद ये महिलाएं अपने पैशन को फॉलो कर आगे बढ़ रहीं है.
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गुजरात के एक आदिवासी गांव की लड़की ललिता, जो भारत के लिए पैरा क्रिकेट खेल चुकी है, कहती है- “मैंने पहली बार 2018 में अपने मोबाइल पर क्रिकेट देखा था, तभी मुझे इसे खेलने का मन हुआ. आज भी मेरे पास खेल देखने के लिए टीवी नहीं है, लेकिन मैं अभी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने देश का प्रतिनिधित्व करने का सपना देखती हूं."
2019 में, भारत का पहला विकलांग महिला क्रिकेट शिविर बड़ौदा क्रिकेट एसोसिएशन की मदद से गुजरात में आयोजित किया गया था. इस प्रयास का नेतृत्व करने वाले मुख्य प्रशिक्षक नितेंद्र सिंह कहते हैं, “विकलांग लड़कियों में बहुत अधिक दृढ़ संकल्प होता है और वे किसी भी अन्य सक्षम व्यक्ति की तुलना में खुद को साबित करने की कोशिश भी करती है. वे लगातार कुछ ज़्यादा कर के और अपना जीवन दांव पर लगाकर फिट होने की कोशिश भी कर रहीं है."
भले ही ये महिलाएं क्रिकेट को अपना पूरा जीवन समर्पित कर चुकी हो, लकिन आज भी कुछ ऐसी बातें है जिन्हें आप नीड ऑफ़ ऑवर कह सकते है. जिस तरह से और कोई भी और गेम को इम्पोर्टेंस दी जा रहीं है, पैरा क्रिकेट के लिए उतना काम नहीं किया जा रहा. सरकार को इन महिलाओं के सपने को एक नयी दिशा देने के लिए रयास करना चाहिए. जब कोई महिला, जो अपने जीवन में इतना सब कुछ होने के बाद भी देश के लिए खेलना चाहती है, तक उसे पूरी सहायता देना, यह सरकार की ज़िम्मेदारी बन जाती है. हर राज्य में ऐसे स्वयं सहायता समूह (SHG) है, जो विकलांग महिलाएं चला रहीं है, और आगे बढ़ा रहीं है. इन महिलाओं के जीवन में दुःख भले ही कितनी भी हो, लेकिन ये हार नहीं मानती. सरकार को इन महिलाओं की मदद कर देश को सशक्तिकरण की राह पर तेजी से आगे बढ़े.