महिलाएं अपने बलबूते पर लड़कर, जीवन में बदलाव लाने के लिए लगातार कोशिशें कर रहीं है, फिर चाहे बदलाव शारीरिक और या मानसिक. महिलाएं आज अपनी ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीने के लिए दौड़ रहीं है. हर महिला अलग है और उनके जीवन की अलग परेशानियां. कुछ या तो अपनी ज़िन्दगी से हताश है या कुछ ख़्वाहिशें दबाकर बैठी है. कुछ को फैसले लेने नहीं दिए जाते है और कुछ ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबी है. इन्हीं सब उलझनों से बाहर निकलने के लिए महिलाएं दौड़ का सहारा ले रहीं है. खुली हवा में दौड़ना, उनके लिए आज़ादी की वह सांस है, जिसके लिए वो बेक़रार है .
ये तीन महिलाएं है मैराथन रनर्स
चेन्नई (Chennai) को अगर सेकंड आईटी हब (IT Hub) कहें तो गलत नहीं होगा. आज चेन्नई की महिलाएं कामकाज, घरबार, दुनियादारी की व्यस्ताओं के साथ दौड़ने के लिए वक़्त निकाल रहीं है. खुद के लिए खुद को समय देना शायद इसी को कहते है. 43 वर्षीय आईटी कंसल्टेंट (IT Consultant) ईश्वरी अंदियप्पन (Eswari Andiappan), एक तरह के वर्क होम पैटर्न में चल रहीं ज़िन्दगी के कारण, शरीर को कब मोटापे ने घेर लिया, पता ही नहीं चला. अपने मोटापे के कारण हो रहे कॉप्लेक्स को छुपाने के लिए, वह ऑब्सेसिव शॉपर बन गयी. अंडिपनन की बेटी का जन्म, उनकी लाइफ का टर्निंग पॉइंट बना. उन्हें यह अहसास हुआ की शॉपिंग उन्हें ख़ुश नहीं रख सकती, जब तक वो अंदर से ख़ुश नहीं रहेगी. ऐसे में ऑफिस से घर जाते वक़्त, उन्होंने विप्रो चेन्नई मैराथन (Wipro Chennai Marathon) के बारे में रेडियो विज्ञापन सुना. बस वहीं से दौड़ने की शुरुआत हुई. खुले आसमान के नीचे खुली सड़क पर दौड़ना, वह अहसास था, जिसने एसवरी को नई आज़ादी दी. मोटापे की वजह से खुद से घृणा और आत्मविश्वास की कमी से जूझ रही एसवरी को मैराथन दौड़कर, ज़िन्दगी की नई राहों का पता चला. एसवरी यहीं नहीं रुकी, 2016 में आयरनमैन ट्रायथलॉन (Ironman Trialthon) पूरा करने वाली तमिलनाडु (Tamilnadu) की पहली महिला बनी.
Image Credits: Your Story
ऐसी ही मैराथन रनर है सीता विश्वनाथन (Sita Vishwanathan), कैंसर रोगीयों के लिए दौड़ के बारे में जो मिथ को तोड़ रही है. सीता को पहले दौड़ना कुछ ख़ास पसंद नहीं था, यहां तक की दौड़ने वाले कपड़े पहन कर बहार निकलना मुश्किल था. लेकिन 2012 में दोस्तों के साथ आई.आई.टी. मद्रास (IIT Madras) की हाफ मैराथन (Half Marathon) में पार्टिसिपेट किया. इसके बाद धीरे-धीरे वीकेंड्स में दौड़ने लगी. 2017 में उन्हें स्टेज थ्री कैंसर (Cancer) का पता चलने से पहले उन्होंने शिकागो (Chicago) में हाफ मैराथन और फुल मैराथन पूरी की थी. जब कैंसर का इलाज शुरू हुआ तब उनका 50 किलो वजन कम हो गया. उनके शरीर में बेहद दर्द रहने लगा और हार्मोन थेरेपी के कारण मूड स्विंग्स होने लगे. उन्हें लगा की वो अब कभी दौड़ नहीं पाएंगी पर अपनी रनिंग और स्ट्रेंथ ट्रेनर दिव्या की सलाह मानते हुए, उन्होंने फिर दौड़ना शुरू किया. इस साल जनवरी में, उन्होंने हाफ मैराथन, साढ़े तीन घंटे में पूरा किया. सीता बताती है कि वह इसलिए दौड़ रही थी ताकि, कैंसर पीड़ित औरतों को अच्छी जीवनशैली चुनने और निडर होकर जीने के लिए प्रोत्साहित कर सके.
Image Credits: Your Story
अब बात करें शालू बजाज (Shalu Bajaj) की, बचपन से ही स्क्वैश खिलाड़ी रही शालू, 2018 से मेन्टल हेल्थ ट्रॉमा से गुजर रहीं थी. तभी उन्हें साथ मिला कम्युनिटी रनर्स का, जिनके साथ उन्होंने दौड़ना शुरू किया. शालू बताती है कि वह 16 साल से लगातार सिगरेट शराब पी रहीं थी, जिस वजह से उनके स्वस्थ्य के साथ परिवार और बच्चों तक पर काफी असर पड़ रहा था. थैरेपी दवाइयां सब कर के देखा पर इन सबका कोई असर नहीं हो रहा था. शालू के लिए दौड़ना शुरू करना भी आसान नहीं था. एक बार शुरू करने के बाद दौड़ना जारी रखा और धीरे-धीरे ध्रूम्रपान की लत भी कम होती गई. उन्होंने वर्ष 2019 में कोलकाता (Kolkata) में बिना प्रशिक्षण के अपना पहला अल्ट्रा-मैराथन (Ultra-Marathon) दौड़ा और विजेता रही. Covid लॉकडाउन के दौरान दौड़ने के साइंस को पढ़ना शुरू किया और आज अल्ट्रा-मैराथन कोच (Ultra-Marathon Coach), मोबिलिटी स्पेशलिस्ट (Mobility Specialist) और स्पोर्ट्स नूट्रिशनिस्ट (Sports Nutritionist) बन चुकी है. शालू ने ध्रूम्रपान छोड़ा और ये सिर्फ दौड़ने की वजह से ही मुमकिन हो पाया. अप्रैल में लंदन (London) में हुए एबॉट वर्ल्ड मैराथन मेजर्स (Abbott World Marathon Majors, Berlin) में भी हिस्सा लिया. शालू बताती है कि जब तक उन्होंने दौड़ना शुरू नहीं किया था, न ही उन्होंने कभी अकेले यात्रा की और आज वह जो कुछ भी है, वह दौड़ने की वजह से है. शालू अपनी आखिरी सांस तक दौड़ना चाहती है, इसीलिए वह अपने शरीर और स्वास्थ्य का निरंतर ख्याल रखती है.
Image Credits: Your Story
दौड़ना एक ऐसी आदत है, जो शारीरिक और मानसिक तौर पर न केवल मजबूत करती है, बल्क़ि खुद के होने का अहसास भी कराती है. खासकर महिलाओं के लिए दौड़ना ज़रूरी है, क्योंकि वो एक अलग आज़ादी और सशक्तिकरण की तरफ ले जाती है. जैसा फिल्म डायलॉग भी है मैं उड़ना चाहता हूँ, दौड़ना चाहता हूँ, गिरना भी चाहता हूँ, बस रुकना नहीं चाहता. दौड़ते रहना ही ज़िन्दगी है, रुक गए तो मौत है .